अमूल्य निधि
आजादी के 73 साल गुजरने के बाद भी दूर-दराज के मामूली गांव से लेकर देश की राजधानी दिल्ली तक स्वास्थ्य व्यवस्था का ढांचा सरकारी ही दिखाई देता है। गांव में आशा कार्यकर्ता, नर्स व प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों से लेकर जिला स्तर के अस्पतालों में कमोबेश डॉक्टर और स्टाफ की उपलब्धता रहती ही है। जाहिर है, देश की अधिकांश स्वास्थ्य व्यवस्था आज भी सरकारी अस्पतालों पर ही निर्भर हैं, हालांकि इनके साथ-ही-साथ महंगी और अनियंत्रित निजी अस्पतालों की तादाद भी बढ़ती जा रही है। वर्ष 2005 में जब राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की कल्पना की गई थी, तब पूरा फोकस सामुदायिक भागीदारी सुनिश्चित करने, उनके प्रशासनिक ढांचे को सुधारने, मातृ व शिशु मृत्यु-दर कम करने और स्वास्थ्य अमले, बुनियादी ढांचे, सेवा तथा आपूर्ति व्यवस्था को मजबूत करने पर था। दूसरी तरफ, सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करने की बजाय इसे निजी क्षेत्र को सौंपने की वकालत करने वालों की मंशा इस जन-कल्याणकारी क्षेत्र को मुनाफे का उद्योग बनाने की थी।
विडंबना यह है कि निजी अस्पतालों और मेडिकल कालेजों में लगातार लापरवाही और अनैतिक प्रैक्टिस जारी रहने के प्रमाण मिल रहे हैं। हाल ही में कोटा (राजस्थान) और राजकोट (गुजरात) में सैकड़ों बच्चों की मृत्यु, गोरखपुर (उत्तरप्रदेश) में जापानी बुखार और मुजफ्फरपुर (बिहार) में चमकी बुखार होने का कारण अलग-अलग है। सरकार ने इन मौतों का कारण भी ढूंढ लिया है, लेकिन फॉलो-अप न होने के कारण और मौतें नहीं होंगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इन मौतों की पुनरावृत्ति रोकने के प्रयास करने की बजाय हर राज्यों के सत्ताधारी दल इन्हें प्राकृतिक मौतें बता रहे हैं।
वर्ष 2015 में जब मध्यप्रदेश में बड़वानी (मध्यप्रदेश) के सरकारी जिला अस्पताल की लापरवाही से 66 लोगों की आंखों की रोशनी चली गई तब वहां सक्रिय गैर-सरकारी संगठन श्जन स्वास्थ्य अभियानश् ने स्वतंत्र जांच रिपोर्ट तैयार कर सरकार को सौंपी तथा दोषियों पर करवाई और पीडि़तों को मुआवजे की मांग की। आम लोगों के दबाव में सरकार को इस दुर्घटना का मुआवजा भी देना पड़ा, लेकिन दोषियों पर कोई करवाई नहीं हुई। बाद में रोगियों को इलाज के लिए निजी अस्पतालों में भेजना शुरू किया गया। सप्ताह भर पहले मध्यप्रदेश के शहडोल जिले में हुई छह बच्चों की मौत पर राज्य के स्वास्थ्य मंत्री ने अस्पताल का दौरा कर मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी (सीएमएचओ) और सिविल सर्जन को निलंबित कर दिया। स्वास्थ्य मंत्री ने जांच के आदेश जारी कर ऐसी मौतों को रोकने की दिशा में निगरानी कमिटी बनाकर सतत जांच करवाने की एक पहल भी की है, पर क्या इतना पर्याप्त है? नीति आयोग और केंद्र सरकार द्वारा यह स्वीकार कर चुकने के बाद कि सरकारी स्वास्थ्य सेवा को मजबूत नहीं किया जा सकता, बीमा आधारित आयुष्मान भारत योजना लाई गई थी। वही श्नीति आयोग इसी महीने जिला अस्पतालों की जमीनों व संपत्तियों को 60 सालों के लिए निजी हाथों में सौंपने का प्रस्ताव लेकर आया है। सब जानते हैं कि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के आधार जिला अस्पतालों को यदि मजबूत नहीं किया गया तो संपूर्ण स्वास्थ्य सेवा हाशिए पर चली जायेगी, लेकिन दिनों-दिन उसे कमजोर करने की कोशिशें की जा रही हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने अस्पतालों की सम्पत्ति निजी हाथों में देने के इस प्रस्ताव को नकार दिया है और मध्यप्रदेश ने भी प्रस्ताव को सिरे से नकारते हुए कहा है कि प्रदेश में सार्वजनिक स्वास्थ्य को मजबूत करने की दिशा में कार्य कर किया जाएगा। मध्यप्रदेश में डॉक्टरों और नर्सिंग स्टाफ की उपलब्धता बढ़ा कर स्वास्थ्य-प्रशासन को मजबूत करने पर जोर दिया जा रहा है। मध्यप्रदेश और राजस्थान ने तो स्वास्थ्य अधिकार कानून लाने की घोषणा तक कर दी है। नीति आयोग के प्रस्ताव में कहा गया है कि अस्पतालों की सम्पत्ति के निजीकरण का यह प्रयोग गुजरात और कर्नाटक में पीपीपी के अनुभवों पर आधारित है, लेकिन कर्नाटक में ऐसे किसी अनुभव की जानकारी नहीं हैं जो इस पर आधारित हो सकता है। रायचूर में जरूर एक असफल प्रयास किया गया था, जिस पर सरकार के आकलन और रिपोट्र्स उपलब्ध हैं। दूसरी ओर, यह प्रस्ताव गुजरात के भुज में गुजरात अडानी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज मॉडल के समान है। इस मॉडल में अडानी के मात्र सौ करोड़ रुपयों के अलावा भारी सरकारी निवेश था, लेकिन 10 साल बाद, प्रति सामान्य छात्र 3 लाख रुपये और एनआरआई छात्र 8 लाख रुपये वसूलने के बावजूद इसमें कुल मिलाकर घाटा ही हुआ है। नीति आयोग के प्रस्ताव में सबसे अधिक चिंताजनक बिन्दु यह है कि मरीजों को नि:शुल्क मरीजों और अन्य सभी में वर्गीकृत कर संविधान की भावना के खिलाफ भेदभाव को बढ़ावा मिलेगा। एक नि:शुल्क रोगी होने के लिए जिला स्वास्थ्य प्राधिकरण से एक विशिष्ट प्राधिकरण प्रमाणपत्र की आवश्यकता होगी। ऐसे रोगियों को नि:शुल्क परामर्श, नि:शुल्क दवाएं और जांच की सुविधाएं प्रदान किए जा सकती हैं, लेकिन यहां उनसे 10 रुपये का पंजीकरण शुल्क भी लिया जायेगा। अन्य सभी रोगियों को बाजार की प्रतिस्पर्धी दरों पर इलाज उपलब्ध कराया जाएगा। केरल की विकेन्द्रीकृत स्वास्थ्य योजना, तमिलनाडु का दवाओं की उपलब्धता का मॉडल, दिल्ली का मोहल्ला क्लिनिक और मध्यप्रदेश का संजीवनी क्लिनिक शहरी स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत कर रहे हैं। हरियाणा में 2014 से सुकून केंद्र चालू है जो कि जिला अस्पताल में घरेलू हिंसा से पीडि़त महिलाओं को काउंसलिंग और सहयोग प्रदान करता है। मध्यप्रदेश में श्मेंटरिंग समूहश् प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की सतत निगरानी कर लोगों से संवाद आयोजित करता है और समुदाय को स्वास्थ्य सेवाओं की निगरानी हेतु प्रेरित करता है। इसी प्रकार का समुदाय आधारित निगरानी मॉडल महाराष्ट्र में भी चलाया जा रहा है जिसमें स्वास्थ्य कार्यकर्ता निगरानी करते हैं। इन प्रयासों को और मजबूत करना आवश्यक है। यह आवश्यक हैं कि राज्य अपनी जिम्मेदारी समझे और स्वास्थ्य और स्वास्थ्य सेवाओं को प्राथमिकता देकर नए प्रयोग करे। अंतर विभागीय समन्वय मजबूत कर हितधारकों के सहभाग से नीचे से लेकर ऊपर तक स्वास्थ्य योजना बनाई जाए। स्वास्थ्य बजट बढ़ाया जाए। निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निगरानी रखी जाए और निजीकरण को रोका जाए। स्वास्थ्य सेवाओं में हितधारकों की भागीदारी के अलावा उनकी जिम्मेदारी और जवाबदेही तय की जाएगी तब ही जन स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार होगा और नागरिकों को सस्ती और स्तरीय स्वास्थ्य सुविधा मिल पाएंगी।
सम्पत्तियों के निवेश से और कमजोर होंगे सरकारी अस्पताल