प्रो मणींद्र नाथ ठाकुर


एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
आज के तथाकथित सभ्य समाज ने ज्ञान के अपने गर्व में आदिवासी समाज के ज्ञान परंपराओं की उपेक्षा की है. आधुनिक विज्ञान ने तो उनके ज्ञान को अंधविश्वास कह कर ही खारिज कर दिया है. मानव विज्ञान के अध्ययन की परंपरा का आधार ही यह दर्शन है कि मनुष्य के विकास के क्रम को समझने के लिए इस समाज का अध्ययन करना जरूरी है क्योंकि आदिवासी विकास के क्रम में पीछे छूट गये लोग हैं. लेकिन पिछले कुछ वर्षों से लोगों को यह लगने लगा है कि उनके बारे में ऐसा सोचना गलत है. उनकी ज्ञान परंपरा से आधुनिक समाज को बहुत कुछ सीखने की जरूरत है.  यह समझना जरूरी है कि मनुष्य मात्र में सृजनात्मक क्षमता किसी भी अन्य प्राणी से ज्यादा है. संसार के जिस हिस्से में भी वह होता है अपनी समस्याओं के समाधान के लिए अपनी इसी सृजन क्षमता का उपयोग कर ज्ञान सृजन करता है.
इस ज्ञान को अनेक तरह से संकलित कर आनेवाली पीढ़ी को हस्तांतरित करता है. हर समाज की समस्याएं और भौगोलिक परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं. समस्याएं खास तरह की होती है, इसलिए उनके पास खास तरह का ज्ञान भी सकता है. जैसे, जहां पानी की कमी हो, वहां के लोग कम पानी में काम चलने के लिए तरह-तरह के उपाय करते हैं और जल संचयन का ज्ञान विकसित करते हैं. इसलिए हर समाज का ज्ञान खास है और हमें उसका सम्मान करना चाहिए, उन्हें संकलित करना चाहिए. आदिवासियों का जीवन प्रकृति के ज्यादा नजदीक होता है. उनके दर्शन में प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर चलने का आदर्श होता है. आधुनिक दर्शन में प्रकृति पर विजय पाने की आकांक्षा है और इसलिए प्रकृति से मनुष्य की दूरी बढ़ती जा रही है. प्रकृति के नियम के अनुसार सभी जीवों को अपनी आवश्यकता के लिए प्रकृति से लेने का अधिकार तो है, लेकिन उतना ही ले जितने की आवश्यकता है और निश्चित करे कि संसाधनों की निरंतरता बनी रहे ताकि आनेवाली पीढिय़ों के लिए भी उपलब्ध रहे. उनके उपयोग में ही प्रकृति के पुन: सृजन की प्रक्रिया समाहित हो. जैसे, मधुमक्खियां फूलों से शहद लेती है. मधुमक्खियों की तरह आदिवासी भी इसी दर्शन को मानते हैं. इसलिए हजारों साल से उनके रहने पर भी जंगल समाप्त नहीं हुआ है, बल्कि उनके रहने से जीवों और जंगलों का संरक्षण ही हुआ है. न्यू मैक्सिको के प्यूबलो आदिवासी समाज के प्रोफेसर ग्रेगरी कजेटे ने अपनी पुस्तक 'नेटिव साइंसरू नेचुरल लॉ ऑफ इंटरडिपेंडेंसÓ में यह बताने का प्रयास किया है कि उनके समाज के विज्ञान का दार्शनिक आधार आधुनिक विज्ञान से अलग है. आदिवासी समाज में ज्ञान को जीवन से अलग नहीं माना गया है. बल्कि, ज्ञान को संगीत, कला और साहित्य में ही समाहित माना जाता है. प्रकृति के ज्ञान को प्राप्त करने की उनकी प्रक्रिया अलग है और उसके संकलन का तरीका भी अलग है. आधुनिक विज्ञान का दर्शन इस बात को समझ नहीं पाता है और उसे अज्ञान की श्रेणी में रख देता है. उसके समाज के दर्शन में मनुष्य के शरीर और मन को अलग समझने की जगह को पूर्णता में समझने की परंपरा है. इसलिए उनका ज्ञान अध्यात्म से अलग नहीं है. उनकी आध्यात्मिकता के कारण प्रकृति और दूसरे मनुष्य से वे अपने आप को अलग नहीं समझते हैं. हमें यह मान लेने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए कि यदि हम प्रकृति और प्राणी मात्र को बचाना चाहते हैं तो आदिवासियों के इस दर्शन की आज दुनिया को बहुत जरूरत है. अंडमान के जारवा जनजातियों के साथ वर्षों तक काम करनेवाले डॉक्टर रतन चंद कार ने अपने अनुभव से मुझे बताया कि वे बेहद संजीदा लोग हैं. उनके रहन-सहन और तौर तरीके में बेहद सादगी और वैज्ञानिकता है. उन्हें जंगल के पेड़-पौधों और उनके औषधीय गुणों का अद्भुत ज्ञान है. लेकिन दुर्भाग्य है कि अंग्रेजों ने अंडमान पर कब्जा करने चक्कर में उन्हें परेशान किया और अंत में उन्हें केवल एक दर्शनीय प्राणी के रूप में बदल दिया गया. आदिवासियों की ज्ञान परंपरा पर काम करनेवाले शोधार्थी नीलम केरकेट्टा का मानना है कि पर्यावरण की सुरक्षा पर जो बहस आज दुनिया भर में हो रही है, उसकी विडंबना है कि उसके मूल में अभी भी प्रकृति पर विजय पाने का दर्शन ही है. जब तक आदिवासियों की संस्कृति में उपलब्ध प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाने के दर्शन को इसका आधार नहीं बनाया जायेगा, इस बहस का कोई खास नतीजा नहीं निकलेगा. उरांव समाज की ज्ञान परंपरा का अध्ययन करनेवाले इस शोधार्थी का मानना है कि उनके पास बीजों और पेड़-पौधों के बारे में जो ज्ञान है, उस पर उन्होंने पुस्तकों का सृजन तो नहीं किया है, लेकिन उनके गीतों, कलाओं और दैनिक जीवन के क्रिया-कलापों में संकलित है.फ्रांस के प्रसिद्ध दार्शनिक ब्रूनो लातूर ने सही कहा है कि आधुनिक समाज जिन मापदंडों पर आदिवासी समाज को आधुनिकता के दौर में पिछड़ा मानता है, उन्हीं मापदंडों पर यदि उन्हें भी परखा जाये, तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि हम कभी आधुनिक थे ही नहीं. हमारा आधुनिक होना एक दंभ से ज्यादा कुछ भी नहीं है. रांची के श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय लुप्तप्राय भाषा संस्कृति प्रलेखन केंद्र में जाकर यह उम्मीद जगी कि भारतीय आदिवासियों की ज्ञान परंपरा में विद्वतजनों की रुचि बढ़ रही है. आदिवासी संस्कृति एक जीवंत परंपरा है, उसे संग्रहालय में सजाने की जगह उस पर शोध की जरूरत है. यदि अमेरिका के ब्लैकफुट संस्कृति पर काम करनेवाले लेरोय लिट्टलबीयर की बात माने, तो आधुनिक विज्ञान से आदिवासी विज्ञान के संवाद की जरूरत है. केवल ध्यान रहे कि यह संवाद ज्ञान के दंभ से अलग हट कर बराबरी का हो और मानवीय मूल्यों को केंद्र में रख कर हो. आग्रह यह होगा कि केंद्र व राज्य सरकारें इस ज्ञान परंपरा का सही आकलन करें. उन लोगों से संवाद करें जिनके पास यह ज्ञान उपलब्ध है और उसका सही प्रलेखन करें. नये स्वरूप में उन्हें विकसित करने के लिए समाज की सहायता करे, ताकि आधुनिक समय के साथ उसका तालमेल बैठाया जा सके. और, केरल की तरह राज्य स्तर एक बौद्धिक संपदा कानून बनाया जाये ताकि इस ज्ञान परंपरा पर आदिवासी सामाज का अधिकार बना रहे.


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